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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...

दोषी कौन? पुरुष या पुरुषतन्त्र?


'Male domination is rooted in our collective unconscious that we no longer even see it. It is so in tune with our expectations that it becomes hard to challange it. Now, more than ever, it is crucial that work to dissolve the apparently obvious and explore the symbolic structures of the androcentric unconscious that still exists in men and women alike'.
-Pierre Bourdieu

उस दिन कलकत्ता टी.वी. के किसी कार्यक्रम में मुझे बुलाया गया। उस कार्यक्रम में मेरे बारे में कुछेक कवि, लेखक और आम पाठकों के सद्यः संग्रह किये गये मन्तव्य थे।

पहला मन्तव्य नवनीता देवसेन ने ज़ाहिर किया। मैं नवनीता की भक्त हूँ, ख़ासकर उनके रस-बोध की। उनका रस-बोध असाधारण है। कुछ ही दिनों पहले, दिल्ली में एक नारीवादी कार्यक्रम में शामिल होने के बाद हम दोनों एक साथ कलकत्ता लौटे थे। हमारी वापसी जैसे ज्ञान और मान-सम्मान से समृद्ध थी, वैसे ही रस से भी गले-गले तक भरपूर थी। पूरा वक़्त जैसे पल भर में उड़ गया। इन्हीं नवनीता ने बहुत बार बताया था कि मेरा लेखन उन्हें अच्छा लगता है, खासकर अपनी जिन रचनाओं में मैंने पुरुषतन्त्र की आलोचना की है। मुझे याद है कि मैंने अपनी एक रचना उन्हें खुद ही पढ़ कर सुनायी थी। मेरे ही घर में बैठे-बैठे उन्होंने उस रचना की उच्छ्वसित प्रशंसा की थी। मैंने देखा, उसी नवनीता ने कलकत्ता टी. वी. में मेरे बारे में कहा, 'तसलीमा और हम लोगों में फर्क यह है कि हम सब पुरुषतन्त्र के विरोधी हैं, वह नहीं है। मेरा मतलब है, हम सिस्टम की समालोचना करते हैं, लेकिन तसलीमा की बात अलग है। वह ऐसा नहीं करती। वह पुरुषतन्त्र-विरोधी नहीं है, वह पुरुष-विद्वेषी है।' उनका यह मन्तव्य सुनकर कुछेक पल मैं सन्न बैठी रही। मैं, जो पिछले दो दशकों से औरत के अधिकारों के पक्ष में खड़े रहकर, धर्म, कट्टरवाद और पुरुषतन्त्र की आलोचना करती रही हूँ, इस विषय पर किताब पर किताब लिखती रही हूँ। इसी वजह से अपने देश से, एक युग गुज़र गया, निर्वासित हूँ, और आज इस नमस्य नारीवादी, बुद्धिजीवी महिला से मुझे यह प्रतिदान मिला। मेरी ज़िन्दगी को ले कर उन्होंने कैसा क्रूर मज़ाक किया।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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